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अंगूर के बाग़ का दृष्टान्त
1 प्रभु येशु प्रधान पुरोहित, शास्त्री और समाज के बड़ों को उदाहरण देने लगे : “एक मनुष्य ने अंगूर का बाग़
a लगाया । उसके चारों ओर बाड़ा बांधा, रस का कुण्ड खोदा और मचान बनाया, और तब उसे किसानों को पट्टे पर देकर विदेश चला गया ।
2 फल का मौसम आने पर उसने एक सेवक को किसानो के पास भेजा कि अंगूर के बाग़ के फल से अपना भाग प्राप्त करे
3 पर किसानो ने उसे पकड़कर पीटा और खाली हाथ लौटा दिया ।
4 उसने फिर अपने दूसरे सेवक को उनके पास भेजा । उन्होंने उसका सिर फोड़ दिया [और उस पर पत्थर मारे] और उसे अपमानित किया [और भगा दिया] ।
5 उसने एक और सेवक भेजा । उन्होंने उसे मार डाला । इसी प्रकार अन्य सेवकों को उन्होंने पीटा या मार डाला ।
6 अंगूर बाग़ के मालिक के पास अब भेजने को उसके पास एक और रह गया अर्थात् उसका पुत्र । उसने यह सोचा, ‘वे मेरे पुत्र का आदर करेंगे ।’ तो उसने अपने प्रिय पुत्र को उनके पास भेजा ।
7 “पर उन किसानों ने आपस में कहा, ‘यह तो वारिस है । आओ, इसे मार डालें, तब इसकी सम्पत्ति हमारी हो जाएगी ।’ 8 तो उन्होंने उसको पकड़कर मार डाला और बाग़ के बाहर फेंक दिया ।”
9 प्रभु येशु ने आगे कहा, “अंगूर-बाग़ का मालिक अब क्या करेगा? वह आकर किसानों का वध करेगा? और अंगूर-बाग़ दूसरों को दे देगा
b ।
10 क्या तुमने पवित्र शास्त्र का यह लेख नहीं पढ़ा:
‘वह पत्थर जिसे कारीगरों ने बेकार माना, वही कोने का पत्थरc बन गया । 11 यह कार्य परमेश्वर का है, और हमारी दृष्टि में अद्भुत है!” 12 वे प्रभु येशु को बन्दी बनाने के उपाय सोचने लगे; क्योंकि वे समझ गये थे कि गुरु येशु ने यह उदाहरण उनके विरोध में दिया है । पर वे जनता से डरते थे, इसलिए वे प्रभु येशु को छोड़ कर चले गए ।
रोमन सम्राट को कर देना उचित है या नहीं
13 उन्होंने फरीसी और हेरोदेस-दल
d के कुछ लोग
प्रभु येशु के पास भेजे कि वे
प्रभु येशु को उनके ही शब्दों में फंसाएं ।
14 उन्होंने आकर कहा, “गुरु जी, हम जानते हैं कि आप सच्चे हैं और आपको किसी का डर नहीं है । आप मुहं देखी नहीं कहते पर सच्चाई से परमात्मा के मार्ग का उपदेश देते हैं । बताइए, क्या रोमन सम्राट को कर देना सही है या नहीं?
15 हम सम्राट को कर दें या न दें?”
प्रभु येशु ने उनकी चालाकी जान कर उनसे कहा, “तुम मुझे क्यों परख रहे हो? एक सिक्का लाओ, मैं उसको देखना चाहता हूँ ।”
16 वे सिक्का ले आए । प्रभु येशु ने प्रश्न किया, “यह किसका चित्र है, और इस पर क्या लिखा है?”
उन्होंने उत्तर दिया, “सम्राट का चित्र है ।”
17 प्रभु येशु ने कहा, “जो सम्राट का है वह सम्राट को दो, और जो परमात्मा का है वह परमात्मा को दो ।”
इस पर वे हैरान रह गए ।
मृतक के फिर जीवित होने के बारे में प्रश्न
18 प्रभु येशु के पास सदूकी
सम्प्रदाय के कुछ लोगe आए, जो कहते हैं कि मरे हुए फिर जीवित नहीं होते । उन्होंने प्रश्न किया:
19 “गुरुजी, हमारे लिए
धर्मगुरु मोशे का लेख है कि यदि किसी का भाई बिना संतान मर जाए और उसकी पत्नी जीवित रहे तो, उसे चाहिए कि वह उस स्त्री से शादी कर
f अपने भाई के लिए सन्तान उत्पन्न करे
।
20 सात भाई थे । पहले ने शादी की और बिना संतान मर गया ।
21 दूसरे ने उस स्त्री से शादी की, वह भी बिना संतान मर गया; और यही दशा तीसरे भाई की भी हुई ।
22 इस प्रकार सातों भाई बिना संतान मर गए । सबके अन्त में वह स्त्री भी मर गयी ।
23 जब सब मरे हुए फिर [जीवित होंगे]
(अंतिम न्याय के समय), तब वह किसकी पत्नी होगी; क्योंकि वह तो सातों भाइयों की पत्नी रही थी?”
24 प्रभु येशु ने उनसे कहा, “क्या तुम इस कारण भूल में नहीं पड़े हो कि तुम न तो पवित्र शास्त्र से परिचित हो और न परमात्मा की शक्ति से?
25 मनुष्य जब मरे हुओं में से जी उठते हैं तब न वे शादी करते
g और न वे शादी में दिए जाते हैं । परन्तु वे ईश-दूतों के समान होते हैं ।
26 “रहा मरे हुओं में से जी उठने के विषय में तुम्हारा प्रश्न: तो क्या तुमने धर्मगुरु मोशे की पुस्तक में जलती झाड़ी के वर्णन में, यह नहीं पढ़ा अब्राहम, इसहाक और जयकब की मृत्यु के बहुत समय बाद परमात्मा ने धर्मगुरु मोशे से कहा, ‘मैं अब्राहम का परमेश्वर, इसहाक का परमेश्वर और जयकब का परमेश्वर हूँ’? 27 परमात्मा मरे हुओं का नहीं परन्तु जीवितों का परमेश्वर है । तुम भारी भूल में पड़े हो ।”
प्रमुख आज्ञा
28 एक शास्त्री यह वाद-विवाद सुन रहा था । उसने देखा कि प्रभु येशु ने उनको ठीक जवाब दिया है । वह आगे बढ़ा और प्रभु येशु से प्रश्न पूछा, “सबसे महत्त्वपूर्ण आज्ञा कौन सी हैं?”
29 प्रभु येशु ने उत्तर दिया, “[सब आज्ञाओं में] प्रमुख आज्ञा यह है:
‘इस्राएल, सुन, परमेश्वर हमारा ईश्वर है, एकमात्र अनोखे परमेश्वर ही । 30 तू परमेश्वर , जो तेरे ईश्वर हैं, को अपने पूरे मन, प्राण, पूरी बुद्धि और पूरी शक्ति से प्रेम कर ।’ 31 दूसरी प्रमुख आज्ञा यह है:
‘अपने पड़ोसी को अपने समान प्रेम कर ।’ इनसे बड़ी और कोई आज्ञा नहीं है ।”
32 शास्त्री ने कहा, “गुरुजी, अति सुन्दर! आपने सच कहा कि परमात्मा एक है, उसके अलावा और कोई नहीं । 33 उसे अपने पूरे मन, [प्राण], पूरी बुद्धि और पूरी शक्ति से प्रेम करना और अपने पड़ोसी को अपने समान प्रेम करना — अग्नि-बलि और पशु-बलि चढ़ाने से ज़यादा ज़रूरी है ।”
34 प्रभु येशु ने देखा कि उसने समझदारी से जवाब दिया है तो उससे बोले, “तुम परमात्मा के धर्म-राज्य से दूर नहीं हो ।” इसके बाद किसी को उनसे और कोई प्रश्न पूछने का साहस नहीं हुआ ।
राजा दाविद के वंशज मुक्तिदाता
35 प्रभु येशु मन्दिर में उपदेश दे रहे थे । उन्होंने कहा, “शास्त्री कैसे कहते हैं कि मसीहा
राजा दाविद के वंशज
h हैं
36 जब कि स्वयं
राजा दाविद ने दिव्य आत्मा की प्रेरणा से यह कहा है:
‘परमेश्वर ने मेरे प्रभु से कहा, ‘जब तक मैं तेरे शत्रुओं को तेरे चरणों के तले न लाऊं तू मेरे दाहिने हाथ पर बैठ’ । 37 राजा दाविद स्वयं उसे ‘प्रभु’ कहता है तो वह राजा दाविद का वंशज कैसे हुआ?” विशाल भीड़ प्रभु येशु की बातें सुनने में रस ले रही थी ।
38 अपने उपदेश में प्रभु येशु ने कहा, “शास्त्रियों से सावधान रहो; क्योंकि उन्हें लम्बे-लम्बे चोगे पहिनकर घूमना, बाजार में प्रणाम, 39 सत्संग भवनों में प्रमुख आसन और भोजों में मुख्य स्थान पसन्द है । 40 पर वे विधवाओं के घर निगल जाते हैं और दिखावे के लिए लम्बी-लम्बी प्रार्थनाएं करते हैं । उन्हें अधिक दण्ड मिलेगा ।”
गरीब विधवा का दान
41 प्रभु येशु मन्दिर के कोष के सामने बैठे हुए देख रहे थे कि किस प्रकार लोग कोष में दान डाल रहे हैं । अनेक धनवान बहुत कुछ डाल रहे थे ।
42 इतने में एक गरीब विधवा आई । उसने दो छोटे सिक्के
i कोष में डाले, जिनका मूल्य एक रुपय से कम होता है ।
43 इस पर गुरु येशु ने अपने शिष्यों को बुलाकर कहा, “मैं तुम से सच कहता हूँ : इस गरीब विधवा ने सब दान-दाताओं के मुकाबले कोष में अधिक दिया है । 44 क्योंकि अन्य सब ने अपनी अमीरी में से डाला, परन्तु इसने अपनी गरीबी में से डाला है । इसने तो जो कुछ इसके पास था, वह सब, अपनी सारी जीविका, दान कर दी ।”